"ॐ ओम नमो नारायण" शैवदर्शन में अथवा शिव के स्वात्म गोपनात्मक क्रीडाओं के बीच में उन शिवत्व तक पहुँचने का एक सरल साधन है नन्दी। नन्दी को धर्मवी कहा जाता है। नन्दी वो एक रास्ता है, एक रोड मैप है जो शिव तक पहुँचने का सहज साधन है| नन्दी को समझना बहुत आवश्यक है|
हमारा जो प्रत्यभिज्ञा दर्शन आश्रम का लोगो है नन्दी, नन्दी धर्म है, जीव धर्म का आश्रय लेकर ही पूर्व तक जा सकता है भगवान गीता में कहते है “धर्मो रक्षति रक्षित:”, जो धर्म का पालन करता है वही धर्म उसका रक्षण करता है। धर्म का पालन ही धर्म रक्षण है अथवा धर्म का पालन करके ही हम धर्म द्वारा रक्षित हो जाते है| गीता में एक अन्यत्र जगह कहा गया है "स्वल्पं अपिधर्मस्यत्रायते महतो भयात" थोड़ा सा भी क्यों न हो पर किया गया धर्माचरण महान भयों से जीव को बचाता है महान भयों से उसका रक्षण करता है। ये धर्म क्या है तो धर्म का एक साधारण प्रतीकात्मक रूप है नन्दी।
नंदी की चार पैर है। प्रथम पैर है सत्य जो सदैव आपको खड़ा मिलेगा, दूसरा पैर है दया, तीसरा तपस्या, चौथा पावित्र। सत्य का अर्थ होता है जो कभी नष्ट ना हो जो सदैव तीनों कालों में तिष्ठत रहता है उसे धर्म का सत्यत्व| दूसरा है दया, दया शब्द का अर्थ होता है दूसरे जीवों में रहने वाले स्वयं को ही महसूस करना| प्रत्येक जीव में रहने वाले उस परमतत्व को महसूस करकर ही वास्तविक दया का जन्म होता है| तीसरा पैर है तपस्या, तपस्या का अर्थ होता है प्रत्येक क्षण हम उस आत्म-तत्वों को साधने के लिए व्यतित करें। हम जो करते हैं खाना, पीना, उठना, बैठना इन सब में एक स्वात्मचेतना का जब समावेश हो जाता है, एक सावधानता का समावेश हो जाता है यह चेतना हमें निश्चिंत ही उस परम सत्य तक ले जाती है और यही वास्तविक तपस्या है। तपस्या का अर्थ घनघोर जंगलों में बैठना, नाक मुँह बंद करना नहीं है, प्रत्येक पल अपने awareness को, consciousness को साधना ही वास्तविक तपस्या है। चौथा पैर है पावित्र। पावित्र शब्द का अर्थ होता है जो पावन करता है, वह पावित्रता। हमें पावन करने वाला एक ही, सिर्फ एक ही साधन है वह है ज्ञान। "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" भगवत गीता कहती है ज्ञान से पवित्र इस जगत में और कुछ भी नहीं है, यह ज्ञान किसी किताब का ज्ञान नहीं है, स्वयं के होने का ज्ञान ही हमें उस पवित्रता तक ले जाता है, स्वयं का ज्ञान ही हमें अति पवित्र बनाता है।
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ॐ तत्सत।।