“प्रत्यभिज्ञा दर्शन आश्रम”, “प्रत्यभिज्ञा” शब्द का अर्थ होता है “स्वयं की पहचान” अथवा “प्रत्यभिज्ञा” शब्द का अर्थ होता है जो है, जो था, जो रहेगा जो कालों से अबाधित सत्य है उस सत्य की पहचान प्रत्यभिज्ञा कहलाता है| ईश्वर, भगवान परमेश्वर इस सारे शब्दों जिनके लिए उपयोग किये जाते हैं वह अनादी, अनन्त, जन्म मृत्यु रहित चैतन्य ही हम सबका अधिष्ठान है हम सब उसी चैतन्य के एक एक छोटे से बुलबुले है छोटे से कण है| इस अपने स्वरूप का आनन्दमय ज्ञानमय और अमृतमय अनुभव करना ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।
वेदों ने कहा है "आत्मकल्याणं एव कर्तव्यं" अथवा भगवान श्रीमद भगवद गीता में कहते हैं "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:" इस उक्ति के अनुसार, इस भगवान के कथन के अनुसार, वास्तव के जीवन का आनंद सिर्फ और सिर्फ स्वात्मदर्शन में ही समाया हुआ है। लेकिन ये स्वात्मदर्शन इतने आसानी से उपलब्ध होता नहीं है। आज के इस रंगबिरंगे जीवन में सभी जीव इंद्रियों के सुखों के प्रति सहजता से आकर्षित हो जाते हैं इंद्रियों के सुख, इंद्रियों के विषय जीव को सहज आकृष्ट करते हैं और उसे बहिर्मुख कर देते हैं और इस बहिर्मुखता के कारण जीव अपनी स्वात्मचेतना को देखे ही नहीं पाता है पहचान ही नहीं पाता है। जब जब अत्यधिक विषयों का चिंतन होता है, बाह्य पदार्थों का चिंतन होता है जीव अपने स्वयं के स्वरुप को मानो खो बैठता है| क्या हम ध्यान नहीं करते हैं? हम सब ध्यान करते हैं परन्तु यह ध्यान बाह्य वस्तुओं का बाह्य विषयों का होता है इस बाह्य वस्तुओं से विषयों से मन को निग्रह पूर्वक धीरे धीरे उपश्रम करते हुए स्वात्मचिन्तन की ओर ले आना बहुत सरल है, अगर आपको कोई मार्गदर्शक अच्छा हो।
आज परम पूज्य दीदी जी के माध्यम से एक अतिशय श्रेष्ठ मार्गदर्शक आपको मिल रहा है। इस आश्रम के माध्यम से आपको सुन्दर ध्यान की विधियों की ओर ले जाया जायेगा जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों की भी पूर्णता हो। भगवत पूज्यपाद आचार्य शंकर के सौंदर्य लहरी, भगवान आदि शिव के द्वारा बताये गए ध्यान के 112 विधियाँ, विज्ञान भैरव तंत्र साथ ही साथ अभिनव गुप्त सोमदत्त क्षेमराज ऐसे अनेकों मनीषियों के द्वारा लिखे गए ईश्वर प्रत्यभिज्ञा विमर्षणी, प्रत्यभिज्ञा हृदयम, ईश्वर प्रत्यभिज्ञा दर्शनम और शैवदर्शन के अनेको सिद्धांतों को यहां नित्य अध्ययन अध्यापन कराया जाता है| माताजी के माध्यम से यहाँ इन विषयों का गहरा अध्ययन किया जाता है।
इस अध्ययन को सर्वसामान्य के लिए भी उपलब्ध कराया जाए। इस एक विचार से हमने इस अधिकारिक वेबसाइट का निर्माण किया है। इस प्रत्यभिज्ञा दर्शन आश्रम एप्लीकेशन का निर्माण किया है। ताकि यह ज्ञान दूर दूर तक पहुँच जाए। दुर्दैव से इतने सरल, इतने आनंददायक विधियाँ काल के गाल में समायी जाती जा रही है। परम पूज्य दिव्यानन्द भारती जी का उद्देश्य है इन अतिशय सुन्दर विधियों को घर-घर तक पहुँचाया जा सके। जिन विधियों के माध्यम से उनको उपयोग करके जीव अपना जीवन सुन्दर संपन्न कर सके | सब कुछ पाते हुए भी अपने आपको सहजता से उपलब्ध हो जाये और यह सब करने के लिए उन्होंने इस आश्रम को निर्माण किया है साधकों के लिए स्वर्ग समान यह आश्रम आप सबका स्वागत करता है।
ॐ तत्सत।
परमपूज्य दिव्यानन्द भारती जी, 5 मई 1992 अक्षय तृतीया के दिन माताजी का इस धरातल पर अवतरण हुआ। मध्यप्रदेश के एक सामान्य परंतु सुसंस्कृत परिवार में माता जी का जन्म हुआ। उन्होंने अपने बचपन से ही, 3 साल की आयु से ही उन्हें गुरु का सानिध्य मिला परमपूज्य लालानन्द भारती जी जैसे तपस्वी शान्त और सत् शील महात्मा के सानिध्य में रहते हुए उन्होंने ध्यान सहित अनेकों प्रकार के साधन भजन किये।
विशुद्धान्तकरण में बचपन के आयुसे ही किये हुए साधन भजनों की वजह से अध्यात्मिक रुची उनकी बढ़ती गई 2012 में उन्होंने सन्यास की दीक्षा लेली। तत्पूर्व माँ आनंदमय आश्रम में उन्होंने अपने सामान्य शुरूआती शिक्षाओं को गृहण किया। शिक्षाओं के साथ साथ ही उन्होंने इंदौर संगीत विद्यालय से एम ए की शास्त्रीय संगीत गायन में पदवि प्राप्त की।
आध्यात्म की रुची के कारण उन्होंने अल्पायु से ही अपने गुरुजी के आदेश से धर्म प्रचार प्रसार का कार्य शुरू किया। आठ साल के छोटी आयु से ही उन्होंने भागवत कथाएं, अनेको विषयों पर प्रवचन इत्यादे आरम्भ करकर प्रचार-प्रसार तथा लोक जागरण का कार्य आरम्भ किया। साथ ही साथ वे अपने जीवन में अनेको प्रकार के शास्त्रों का अध्धयन करते रहे।
वेदांत, पृष्टांत रेभाश उसी के साथ आगम के अनेको गूढ़ और रहस्यों को उन्होंने अध्ययन करते हुए उस पर महारत हासिल करने का काम किया अपनी गुरु की शिक्षाओं को अपने अन्तः करण में समाते हुए अनेकों प्रकार के अध्यात्मिक अनुभवों को साधते हुए परमपूज्य माता जी ने अपने जीवन में दिव्यता प्राप्त की और इसलिए उनका नाम दिव्यानन्द सरस्तवती जी रखा गया। माता जी ने अपने विशुद्ध अन्तः करण की वजह से और गुरु कृपा की वजह से बहुत अल्प काल में अनेकों विद्याओं को साध लिया उनके अनुभवों के माध्यम से मिली हुई विद्याओं को उन्होंने लोक कल्याण के लिए उपयोगित किया। ईश्वी सन 2022 के फरवरी में बसंत पंचमी के दिन अपने गुरु के आदेश से नए आश्रम की शुरुआत की उस आश्रम का नाम है "प्रत्यभिज्ञा दर्शन आश्रम"। "प्रत्यभिज्ञा" शब्द अभिनव गुप्त के शिष्य सोमदत्त के प्रत्यभिज्ञ हृदयम शब्द से लिया गया है । आइये इस सुन्दर साधना में संस्कृति में हम आपका स्वागत करते है।
ॐ तत्सत।।
"ॐ नमो नारायण" शैवदर्शन में अथवा शिव के स्वात्म गोपनात्मक क्रीडाओं के बीच में उन शिवत्व तक पहुँचने का एक सरल साधन है नन्दी। नन्दी को धर्मवी कहा जाता है। नन्दी वो एक रास्ता है, एक रोड मैप है जो शिव तक पहुँचने का सहज साधन है नन्दी को समझना बहुत आवश्यक है हमारा जो प्रत्यभिग्य दर्शन आश्रम का लोगो है नन्दी, नन्दी धर्म है, जीव धर्म का आश्रय लेकर ही पूर्व तक जा सकता है भगवान गीता में कहते है धर्मो रक्षति रक्षित: जो धर्म का पालन करता है वही धर्म उसका रक्षण करता है। धर्म का पालन ही धर्म रक्षण है अथवा धर्म का पालन करके ही हम धर्म द्वारा रक्षित हो जाते है गीता में एक अन्यत्र जगह कहा गया है "स्वल्पं अपिधर्मस्यत्रायते महतो भयात" थोड़ा सा भी क्यों न हो पर किया गया धर्माचरण महान भयों से जीव को बचाता है महान भयों से उसका रक्षण करता है। ये धर्म क्या है तो धर्म का एक साधारण प्रतीकात्मक रूप है नन्दी।
नंदी की चार पैर है। प्रथम पैर है सत्य जो सदैव आपको खड़ा मिलेगा, दूसरा पैर है दया, तीसरा तपस्या, चौथा पावित्। सत्य का अर्थ होता है जो कभी नष्ट ना हो जो सदैव तीनों कालों में तिष्ठत रहता है उसे धर्म का सत्यत्व, दूसरा है दया, दया शब्द का अर्थ होता है दूसरे जीवों में रहने वाले स्वयं को ही महसूस करना, प्रत्येक जीव में रहने वाले उस परमतत्व को महसूस करकर ही वास्तविक दया का जन्म होता है, तीसरा पैर है तपस्या, तपस्या का अर्थ होता है प्रत्येक क्षण हम उस आत्मतत्वों को साधने के लिए व्यतित करें। हम जो करते हैं खाना, पीना, उठना, बैठना इन सब में एक स्वात्मचेतना का जब समावेश हो जाता है एक सावधानता का समावेश हो जाता है यह चेतना हमें निश्चिंत ही उस परम सत्य तक ले जाती है और यही वास्तविक तपस्या है। तपस्या का अर्थ घनघोर जंगलों में बैठना, नाक मुँह बंद करना नहीं है प्रत्येक पल अपने awareness को, consciousness को साधना ही वास्तविक तपस्या है।
चौथा पैर है पावित्र। पावित्र शब्द कार्थ होता है जो पावन करता है, वह पावित्रता। हमें पावन करने वाला एक ही, सिर्फ एक ही साधन है वह है ज्ञान। नहीं ज्ञाने "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" भगवत गीता कहती है ज्ञान से पवित्र इस जगत में और कुछ भी नहीं है, यह ज्ञान किसी किताब का ज्ञान नहीं है स्वयं के होने का ज्ञान ही हमें उस पवित्रता तक ले जाता है स्वयं का ज्ञान ही हमें अति पवित्र बनाता है। आईए इस धर्म के बारे में हम और गहराई से जानने के लिए आश्रम के इस आधिकारिक वेबसाइट से जुड़ जाए| ॐ तत्सत।।